अष्टावक्र गीता
अध्याय-8
तुम बहुत धनवान हो, दाता बनकर तो देखो, क्योंकि तुम स्वयं आनन्दस्वरूप हो। राजा होने अथवा रूपये-पैसे सम्पदा से ही मनुष्य धनी होता है, ये समझने की भूल न करना। मैं मस्त हूँ, तृप्त हूँ, मुक्त हूँ, मुझे कोई लोभ आकर्षित नही कर सकता, मैं यहाँ देने आया हूँ और देता ही रहूँगा। ऐसे भाव मनुष्य के हृदय में होने चाहिए। कोई ग्रहण करता है अथवा नहीं, इसकी भी चिन्ता नही करनी चाहिए। जिस प्रकार एक पुष्प अपनी सुगंध फैलाता है, किन्तु किसी ने उस सुगंध को ग्रहण किया अथवा नहीं इससे वह अप्रभावित रहता है। स्वभावगत आचरण ही श्रेयस्कर है। यदि हम अपने स्वभाव के अनुरूप तृप्त है, मस्त और आनन्दित है तो यही असली सम्पदा है। किसी से कोई अपेक्षा न करते हुए, यदि देना अपना स्वभाव बन जाय तो यही सच्चा धन है।
*त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः|*
*शुद्धबुद्धस्वरूपस्त्वं मागमः क्षुद्रचित्तताम्||*
तुम क्षुद्रचित्त अर्थात् छोटी बुद्धि में मत उलझो। सारा संसार तुम्ही से निर्मित व ओतप्रोत है। यह संसार मुझसे निर्मित है, यह सुनकर मनुष्य को विश्वास नहीं होता है।
कभी सोचा है कि मुख द्वारा तुम्हारे शरीर में अब तक कितने ट्रक अनाज अन्दर जा चुका है? क्या कोई अनुमान है? यदि अनुमान लगाये तो प्रतिदिन तुम 2 किलो भोजन ग्रहण करते हो, तो एक वर्ष में लगभग 800 किलो (त्यौहार - उत्सव में कभी अधिक भी हो जाता है) भोजन तुम्हारे शरीर में जाता है। 40 वर्ष की आयु आने तक 32 टन भोजन तुम ग्रहण कर चुके हों। आगे आयु बढ़ने में इसकी मात्रा बढ़ेगी ही। इसी प्रकार कितने गैलन पानी तुम पी चुके हों? पसीना व मल-मूत्र के रूप में यह शरीर से बाहर भी निकल चुका है। कितनी हवा अभी तक तुम पी चुके? खाना-पीना एक दिन में 2-4 बार ही होता है परन्तु हवा तो प्रतिक्षण चाहिए।

